Sunday, September 6, 2015

क्या मैं एक नाम के सिवाय कुछ भी नहीं ?

अपना नाम अनिल कुमार गुप्ता से अनिल कुमार 'अलीन' करने पर उतना हंगामा नहीं हुआ जितना कि अनिल कुमार 'अलीन' से सूफी ध्यान श्री करने पर हुआ।  पब्लिकली तो बस इतना ही हुआ कि एक प्यासी धरती पर बारिश की दो-चार बुँदे गिरते ही बूंदें वाष्प हो गयी।  परन्तु मेरे व्यक्तिगत मेल, व्हाट्सएप्प, मेसेंजर इत्यादि पर इतनी बारिश हुई कि बाढ़ के पानी से वर्षों से मेरे मन-मस्तिक में जमी धूल बह गयी।  खुद के होने  और न होने  का सारा भ्रम टूट गया।  यह राज अब जाकर खुला कि  मैं सिवाय एक नाम के कुछ नहीं था जिससे  मेरा समाज मुझे जानता था।  मेरी अपनी कोई पहचान नहीं, एक उधार की पहचान जो निश्चित रूप से मुझ जैसे व्यक्ति से एक दिन  छीन जानी थी सो छीन गयी।  कारण स्पष्ट है कि मुझ जैसे लोगों के पास ऐसा कुछ नहीं सिवाय उनके झूठ के उन्हें देने को।  अतः लेन-देन का यह व्यापार ज्यादा दिन तक खींचना मुमकिन नहीं था।  यह मेरे बस की बात नहीं कि किसी को खुश रखने के लिए वह बोलू जो वह हैं ही नहीं।  अच्छा हुआ कि उनका झूठ उन तक पहुँच गया।  विभिन्न प्रकार के लोगों से हुई चर्चा के अनुभव आप तक इस उम्मीद के साथ लाया हूँ कि यदि आपका भी इसमें कुछ हिस्सा हो तो सहर्ष अपना हिस्सा ले जाये। 
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आस्तिक       :-  भाई! तुम्हारा तो नाम अनिल कुमार 'अलीन' था। 
सूफ़ी ध्यान श्री:- जी बिल्कुल।  

आस्तिक        :-  मैं किस नाम को स्वीकार करू?
सूफ़ी ध्यान श्री:-  क्यों भाई? क्या मेरा कोई अपना अस्तित्व नहीं?

आस्तिक       :-   यह कैसा सवाल है?
सूफ़ी ध्यान श्री:-   माफ़ करियेगा.। यह कोई सवाल नहीं बल्कि आपके सवाल का जवाब, सवाल के रूप में है। 

आस्तिक        :-   लगता है आपने मेरा सवाल नहीं समझा?
सूफ़ी ध्यान श्री:-   फिर आप ही समझाएं। 
आस्तिक       :-   आप पल-पल अपने नाम को बदलते रहते हो। हम कैसे और आपके किस नाम पर यकीन करें?
सूफ़ी ध्यान श्री:-   जी, क्या आप बताना चाहेंगे कि आपने पहली बार किस पर यकीन किया था? मतलब मुझ पर या मेरे नाम पर। 
आस्तिक       :-  जी आप पर।   
सूफ़ी ध्यान श्री:- अब मैं खुद को सूफी ध्यान श्री कहता हूँ।  फिर तो आपको मुझ पर यकीन करना होगा।

आस्तिक       :- मेरे कहने का मतलब कि  अब तो मुझे आपके नाम अनिल कुमार गुप्ता पर यकीन हो गया था।  फिर अब आप पर कैसे यकीन करूँ कि आपका नाम  सूफ़ी ध्यान श्री है।   
सूफ़ी ध्यान श्री:- भाई, फिर तो किसी बात का टेंशन ही नहीं क्योंकि आपको मुझ पर यकीन नहीं, मेरे नाम पर है।  फिर तो आपको मुझसे पूछना कहीं से भी जायज़ नहीं लगता क्योंकि आपको मुझ पर यकीं न होकर मेरे नाम 'अनिल कुमार गुप्ता' पर है।  यह सवाल आपको अनिल कुमार गुप्ता से पूछना चाहिए क्योंकि मैं तो सूफ़ी ध्यान श्री हूँ। 

आस्तिक       :-  मुझे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा।  बिल्कुल कन्फ्यूज्ड हो भाई।  
सूफ़ी ध्यान श्री:-   भाई! कमाल है।  समझ में तुम्हें नहीं आ रहा है और कन्फ्यूज्ड मुझे बता रहे हो। 

आस्तिक        :-   मुझे माफ़ करो भाई। 
सूफ़ी ध्यान श्री:-    भाई! गलती आपसे हुई है।  भला मैं कैसे माफ़ कर दूँ।  समस्या आपकी है तो समाधान भी आप ही के पास होगा।  
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नास्तिक        :- भाई! आपने यह आस्तिकों वाला नाम क्यों रख लिया?
सूफ़ी ध्यान श्री:- क्यों,का क्या मतलब है? बस अच्छा लगा रख लिया।

नास्तिक       :- किन्तु ऐसे नाम प्रत्यक्ष रूप से आस्तिकता का समर्थन करते हैं। 
सूफ़ी ध्यान श्री:-  आस्तिक तो अपनी आस्तिकता को इस संसार के कण-कण से जोड़ते हैं। फिर क्या आप इस संसार की वस्तुओं का उपभोग करना छोड़ दिए या फिर इस संसार को छोड़ दिए ?

नास्तिक        :- नहीं भाई। किन्तु जो छोड़ने योग्य है।  उसे छोड़ ही सकते हैं 
सूफ़ी ध्यान श्री:-  फिर क्या आप बताना चाहेंगे कि नास्तिकता का वह कौन सा पैमाना है?  जिससे नास्तिकता की माप की जाय. जिससे एक नास्तिक को पता चलता रहे कि कहीं वह आस्तिक तो नहीं होते जा रहा.

नास्तिक      :-  नहीं भाई।  नास्तिकता तो इतनी ही है कि ईश्वर के अस्तित्व के होने से इंकार करना।  जिसमे किसी पैमाने की जरुरत नहीं। 
सूफ़ी ध्यान श्री:- तो आपको क्या लगता है ? मेरा नाम या फिर मैं या दोनों ईश्वर है। 

नास्तिक       :- जी।  मतलब  उस जैसा तो है। 
सूफ़ी ध्यान श्री:- मतलब आपको पता है कि  ईश्वर कैसा  है। तभी तो आप मेरी उससे तुलना कर रहे हो। कहीं आप आस्तिक तो नहीं। 

नास्तिक          :- जी,बिल्कुल  नहीं। आप शब्दों के जादूगर हो।  शब्दों से चमत्कार उत्पन्न कर रहे हो। 
सूफ़ी ध्यान श्री:- आपकी बाते तो बिल्कुल  आस्तिकों की तरह है  जो अपने कल्पित ईश्वर या ख़ुदा को चमत्कारी कहता है। 

नास्तिक        :- भाई।  मैं चलता हूँ।  मुझे माफ़ करना।
सूफ़ी ध्यान श्री:-  फिर वही बात ....... … 
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वकील            :- ज़नाब! आपका नाम संभवतः अनिल कुमार  गुप्ता है। 
सूफ़ी ध्यान श्री:-  जी था।  अब नहीं है। 

वकील            :-  तो क्या आपने अपना नाम कागजों से भी बदल लिया। 
सूफ़ी ध्यान श्री:-   जी, बिल्कुल नहीं।  मैं कागजों पर चढ़ाया ही नहीं तो फिर मैं बदलू क्यों?

वकील           :-  भाई, आप पर यकीन  कोई करे तो कैसे करें।  प्रमाणिकता तो कागजों की ही होती है। 
सूफ़ी ध्यान श्री:-  यदि प्रमाणिकता कागजों की होती है तो भाई जाकर उन कागजों से पूछो।  खामोखां अपना और मेरा वक्त  जाया क्यों कर रहे हो?

वकील           :-  यार दिमाग़ के पैदल लगते हो।  तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता। 
सूफ़ी ध्यान श्री:-  शुक्रिया।  क्या यह कम है कि आपका हो जाये?………



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