Saturday, August 8, 2015

यह किताबी बाते

यह किताबी बाते वैसे ही है जैसे कोई जिंदगी को शब्दों में व्यक्त कर दिया हो। जो हमेशा अव्यक्त रहेगा।
बुद्ध क्या थे और क्या करते थे? यह जानने से कहीं ज्यादा महत्पूर्ण है मुझे आज के परिवेश को समझने की। आपको समझने की। उससे भी कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है खुद को जानने की। वरना अभिव्यक्ति और अनुभूति दोनों अधूरी रह जायेगी।
हकीकत भी यही है कि अधूरी रह जानी है। इस लिए हमें खुद को उस पैमाना तक ले जाना है जहाँ अशुद्धियाँ कम हो। यदि यह पैमाना कल्पनाओं का होगा फिर तो हमारा अनुभव और अनुभूति दोनों ही एक भ्रम है औए खुद के साथ धोखा है। फिर चाहे हमारा नजरिया लाख सब्जेक्टिव हो परंतु हमें खुद को सब्जेक्ट के रूप में स्थापित न करने के कारण हमारे अनुभव में विभिन्नता की खाई बढ़ती जायेगी। जो कि हकीकत में सबके लिए एक कल्पना है, स्टैण्डर्ड या ऑब्जेक्ट नहीं। यदि है भी तो इसका यूज़ मन को ही करना है। फिर परिणाम एक सामान हो ही नहीं सकता। यह तो और खतरनाक है जिसका परिणाम चारो ओर देख रहे हैं आप। आज संसार में सबसे अधिक अशांति और हिंसा इसी झूठे ऑब्जेक्ट(काल्पनिक ईश्वर) के कारण है। आज जरुरत है कि इन किताबों और ग्रंथों से निकलकर नए प्रयोग और अन्वेषण की तरफ मुड़ने की......आज जरुरत है ऑब्जेक्ट के सही मायने की तलाश करने की। मेरे सापेक्ष दोनों ही झूठ है, आस्तिक होना भी और नास्तिक होना भी । परंतु नास्तिक के सापेक्ष आस्तिक भी एक झूठ ही है अर्थात नास्तिक सच और आस्तिक झूठ। हो सकता है कि कल किसी का अनुभव और अनुभूति मुझे बेहतर हो फिर तो मेरे अनुभव और अनुभूति को भी झुठा हो जाना है क्योंकि कोई चीज सर्वभूमिक सत्य हो ही नहीं सकती। यहाँ तो सापेक्षता का सिद्धान्त ही काम करता हैं।.....परंतु जबतक यह सापेक्षता मन के सापेक्ष रहेगा तबतक भटकाव स्वाभाविक है......अतः हमे संसार, ब्रम्ह,वातावरण, शरीर और साँस के बाहर का सफ़र करना होगा। यह भटकाव तब तक है जबतक मन है........फिर तो यह सफ़र ही है मन से बाहर निकल जाने का.....यह सफ़र ही है खुद को जान लेने का.....……………………अनिल कुमार 'अलीन'

अनिल कुमार "अलीन" जी, खुद को जानने के प्रयास सदियों से मनीषियों द्वारा किये जा रहे हैं ! महान सूफी संत बुल्लेशाह फरमाते हैं " बुल्ला की जाणा मैं कौन " ? खोज सदियों से चल रही है किन्तु उत्तर कोई नही पा सका ! और यदि किसी को मिला भी तो वो मौन हो गया ! व्यक्त करने लायक उसके पास शब्द ही नहीं थे ! उसका सत्य शब्दों की सीमा से कहीं दूर था ! जिस प्रकार किसी और का अनुभव हमारा अनुभव नहीं हो सकता ठीक उसी प्रकार किसी और का सत्य हमारा सत्य नहीं हो सकता ! सत्य को जानने के लिए अनुभव के मार्ग से गुजरना ही पडेगा ! मार्ग में कई अनुत्तरित प्रश्नों से सामना हो सकता है,जिन्हें हल करने के लिए समीकरण तलाशने होंगे ! और बुद्ध, महावीर, ईसा, नानक, कबीर जैसे मनीषी ही वो समीकरण हैं जिनके सहारे प्रश्नों का हल संभव है ! आवश्यकता है समझने की और उस समझ को अपने अनुभव की कसौटी पर कसने की ! यदि समझ में आये तो ठीक , वर्ना छोड़ दो दूसरों के लिए ! आपका अपना अनुभव ही आपका सत्य है ! और आपका सत्य ही आपका मार्गदर्शक भी.............
...............................................................
अभी तक एक आप ही ऐसा बन्दा मिले जिसने तार्किक ढंग से बात की और वह भी बिना विषय-वस्तु को घुमाए। उसके लिए हार्दिक आभार।
परंतु बीच में आपने विशेष व्यक्तियों का नाम लेकर सब गुड़ गोबर कर दिया। अभी आपने ही कहाँ कि कोई इस रहस्य को जान नहीं कर पाया और जो जाना उसके उसे व्यक्त करने लायक शब्द नहीं रहा। मुझे यह समझ में नहीं आ रहा कि यदि ऐसा है तो फिर इसे व्यक्त करने के लिए ये कबीर, नानक और बुद्ध इत्यादि शब्द कहाँ से पा गए। आख़िरकार ये लोग इस रहस्य को जानकर मौन क्यों नहीं हुए? कहीं ऐसा तो नहीं की ये लोग पगला गए। फिर अनाप-सनाप बोलकर किताबों और ग्रंथों में कूड़ा-करकट भर दिए। मैं आशा करता हूँ कि इस बार भी आप बिना बात घुमाए। तार्किक ढंग से अपनी बातों को रखेंगे।
जिन मृत व्यक्तियों के सहारे प्रश्नों के उत्तर की बात कहीं है आपने। कितने सालों से लोग उनके सहारे अनुत्तरित प्रश्नों की खोज में है। पूरा का पूरा मानव समाज उनके मृत विचारों को, जो बुझे हुए दीपक के समान है, लेकर मृत पड़ा हुआ है। और एक-दूसरे को धोखा में रखा है कि यह दीपक है। भला क्या बिन बाती, तेल और लौ के कोई दीपक होता है। क्या हम मृत पड़े मानवों को कभी प्रयास रहा उस दीपक में बाती, तेल और लौ लगाने की? या कोई प्रयास रहा यह जानने की कि दीपक(ईश्वर) क्या है? यदि हाँ तो कितने लोग जान पाये? यदि नहीं तो फिर इसे ढ़ोने से फायदा क्या? और यदि जानने की कोशिश हो रही है तो पीढियां की पीढियां खत्म हो गयी पर यह झूठी मान्यता नहीं गयी, आख़िरकार कब जानेंगे...............…… ……………………………………अनिल कुमार 'अलीन'

अनिल कुमार " अलीन " जी, निसंदेह शरीर नश्वर है किन्तु विचार कदापि नहीं ! विचार व्यक्ति की बौद्धिक क्षमता का दर्पण हैं ! जिस प्रकार भौतिक जगत की वैज्ञानिक खोजें-आविष्कार तत्कालीन वैज्ञानिकों के ज्ञान का परिणाम हैं ठीक उसी प्रकार सुष्म-जगत के खोजी हमारे ये मनीषी ही हैं ! जिन्होंने अपने जीवन के अनुभवों को संसार के समक्ष रक्खा ! हाँ यह बात और है कि कौन इसे किस दृष्टिकोण से देखता है !ईश्वर तो मात्र प्रतीकात्मक शब्द है उस परमसत्ता के प्रति जिसे प्रकृती अथवा क्रियेटर के नाम से भी जाना जाता है ! उस पवार-प्वाइंट तक जाने के विभिन्न मार्ग हैं ! और इन मनीषियों ने अपने-अपने ढंग से मार्ग सुझाये हैं, यह उनका अपना सत्य है ! अपना सत्य खोजने का दायित्व आपका है , क्योकि दुसरे का सत्य आपका सत्य हो ही नहीं सकता ! जिस प्रकार शब्दकोष में लाखों शब्दों के अर्थ छुपे रहते हैं जो ढूँढने पर ही मिलते हैं अर्थ तो हैं किन्तु पाने के लिए वर्णमाला के क्रम से तलाशना पड़ता है, जो यह नहीं जानते वे सिर्फ पन्ने ही पलटते रह जाते हैं ! और खोजी अपना समाधान ढूंड निकालते हैं !............................ 

आपकी बाते पढ़ने में तो सचमुच मजेदार है। लेकिन अब आप विषय वस्तु से हटकर कुछ और ही बाते करने लगे. चलिए। उसी पर बात करते हैं। आपसे कौन कह दिया कि विचार कदापि नश्वर नहीं है? कुछ किताबें या फिर कुछ लोग। क्या कभी उसे आपने स्वयं जानने का प्रयास किया? यह सत्य है कि हम में से किसी एक के जाने से विचार खत्म नहीं हो। परन्तु कदापि नहीं, यह तो एक सफ़ेद झूठ है। इस सृष्टि में हरेक चीज को एक दिन खत्म हो जाना है। यहाँ तक कि इस सृष्टि को भी ताकि इसमें नवीनता आ। यदि कोई चीज सदैव के लिए खत्म नहीं होगी वह है परिवर्तन और परिवर्तन में जरुरी नहीं है कि चक्रीय ही परिवर्तन हो क्योंकि इसकी भी एक सीमा है। यदि ऐसा नहीं होता तो फिर अबतक कि कई विलुप्त प्राणियों का पुनः उसी रूप में आगमन हो गया होता। जबतक हम है तबतक ये विचार भी हैं। परन्तु आखिरी मनुष्य के एक दिन  खत्म हो जाने के बाद यह विचारों का स्थांतरण रुक जायेगा और सब विचार हमेशा हमेशा के लिए ख़त्म हो जायेंगे। अपने उपरोक्त क्रम में मैं यही तो प्रश्न किया हुआ कि आखिरकार पीढ़ी दर पीढ़ी पन्नों को पलटने का काम कब तक चलेगा? क्योंकि यह स्पष्ट प्रदर्शित है कि पूरा का पूरा मानव जाति( कुछ लोगों को छोड़कर) पन्नों को पलटने में लगा है. मेरा आलेख इसी निष्क्रियता की तरफ एक संकेत मात्र है. …… अनिल कुमार 'अलीन' 

 

No comments:

Post a Comment