Tuesday, August 4, 2015

थाने की एक रात (संस्मरण)

पुलिस थाने में रात बिताने की अबतक का मेरा यह पहला व आखिरी अनुभव है. सामने लम्बे-चौड़े डेस्क के पीछे लगी हुई कुर्सी पर बैठकर थाने का दीवान, दिन भर के कार्यों का लेखा-जोखा तैयार करने में लगा हुआ था. डेस्क के नीचे पड़े कम्बल पर मैं बैठा कुछ डरा सहमा सा था. बाहर ऐसा वातावरण जो पत्थरों में भी धड़कन पैदा कर दे. बारिश की जमीं पर गिरती हुई बुँदे हायड्रोजन लाइट में मोतियों की फुलझड़ी सी चमक रही थी. किन्तु मेरे अन्दर बेचैनी व घबराहट की उठती हुई लपटों से पूरा का पूरा वदन धधक उठा था. माथे से टपकता हुआ पसीना ऐसा लग रहा था मानों किसी बर्फ के पुतले को आग पर रख दिया गया हो. नीचे से कम्बल काँटों की सेज की भांति चुभ रहा था. मच्छर ऐसे कि चैन से मुझे बैठने न दे. जितना मारो कमबख्त रक्तबीज के भांति बढ़ते ही जा रहे थे. यह सबकुछ नया था, साथ ही असहनीय और अविश्वसनीय. कभी सोचा नहीं था कि जीवन में ऐसे भी दिन मुझे देखने पड़ेगे. पुलिस थाने में खुद को देखना वैसे ही था जैसे कोई मेमना खुद को शेर के पिजड़े में देख रहा हो. भय के मारे हाथ-पांव काप रहे थे. मन को भ्रमित करने के लिए खुद को डरे होने से इन्कार कर रहा था. नकारात्मक विचारों से ऐसे घिरा हुआ था जैसे कभी अभिमन्यु कौरवों के चक्रव्यूह में. बेचारा कुछ नहीं मिला तो रथ का पहिया ही उठाकर दौड़ पड़ा कौरवों को मारने के लिए. अफ़सोस कामयाब नहीं हुआ और निर्मम ढंग से मारा गया. ऐसा ही कुछ मैं, मेरे मन में उठ रहे नकारात्मक विचारों के साथ कर रहा था. भला वो क्योंकर मेरे बन्दर घुड़की से डरते? कहते है दर्द का हद से गुजर जाना है दवा हो जाना. मन की व्याकुलता चरमसीमा पर जाकर धीरे-धीरे शांत हो गयी और दिमाग काम करना बंद कर दिया. मन में बस एक ही ख्याल आ रहा था. चलो जो होगा देखा जायेगा. परन्तु मन इस तरह शांत होने को तैयार भी नहीं था. मरने से पहले १००-१५० को मारने का प्लान बना चूका था. मैं भी उसके निर्देशों का पालन करते हुए खुद को मच्छर मारने में झोक दिया. आखिरकार १००-१५० तक पहुँचते-पहुँचते मेरी दुर्दशा हो गयी. थक-हारकर खुद को मच्छरों के हवाले कर दिया. यह सब कुछ मेरे लिए असहनीय था किन्तु इसके सिवा कोई सरल और सहज मार्ग भी नहीं सूझ रहा था. अतः वही कम्बल पर लेट गया. नीचे खटमल और ऊपर मच्छर, मेरा हाल बिलकुल वैसे ही था जैसे आटे की चक्की के सिलियों के मध्य गेहूं का होता है. ऐसी-ऐसी जगह काटे जिसका जिक्र करना किसी भी सभ्य समाज में अशोभनीय है. कुछ ही समय में पुरे शरीर में चुनचुनाहट व खुजली मच गयी. इतना कुछ और मेरे साथ, यह मन को गवारा न हुआ. बर्दास्त नहीं होने पर उठकर बैठ गया. डेस्क के पास बैठा हुआ दीवान मेरी हालत को देखकर मुस्कुराए जा रहा था और मैं भी मन ही मन उसे चिढाये जा रहा था, “बेटा! मैं तो किसी तरह यह रात कट लूँगा. परन्तु तुम्हें तो हर दिन यहीं रात काटनी है.” साथ ही कैदियों के दिनचर्या को सोचकर उनके प्रति अनायास ही हमदर्दी उमड़ रही थी.
(चित्र गूगल इमेज साभार)


वह दीवान पुरे थाने में एकलौता इंसान था जो मेरी नज़र में दयावान लग रहा था. उसके सामने दिनहीन व बेचारा बनकर इस उम्मीद के साथ एकटक देखे जा रहा था, शायद मेरे हालात पर उसको तरश आ जाए. वरना मेरा गुरुर अब भी किसी कोने में दुबका पड़ा किसी चमत्कार के फिराक में था. तभी मेरे कानों के परदे को हटाती हुई एक हमदर्दी भरी आवाज आशा के आगन में झाकी. वरना रात की गहरी होती स्याही के साथ मेरे जीवन के पन्ने धूमिल होते नज़र आ रहे थे.

“जनाब! आखिर कौन सी खता हुई जो आप यहाँ तक पहुँच आये”

“खता! जाने कौन सी हुई? बस यूँ समझिये हो गयी.”

मैंने अपने मन को बचाते हुए उस थाने के दीवान से वही कहानी आधी सच्ची और आधी झूठी कह डाली जिसे कुछ देर पहले उन सिपाहियों को सुनाया था जो मुझे यहाँ बैठा गए. बात कुछ ऐसी थी कि खुलती तो फिर दूर तक जाती. लोग नमक-मिर्च लगाकर मजा लेते और रुसवाई जो होती वह अलग से. इस अनचाहे परिस्थिति के लिए मन तैयार नहीं था. अतः जो कोई कुछ पूछता उसको घुमाता रहा. नतीजा निकलने की बजाय उनके सिकंजे में और फसता गया. बहरहाल वह मेरी पूरी बात सुनकर मेरे साझे में आ गया. दीवान ने कहा तुम सो जाओ. सुबह साहब से विनती करके तुम्हें छुड़ा दूंगा.उसकी बाते सुनकर जान में कुछ जान आयी. परन्तु नयनों में नींद नहीं आयी. वह मंजर बार-बार मेरे आखों के सामने नाच रहा था जिसके कारण मुझे यह दिन देखना पड़ रहा था. बार मैं खुद को कोस रहा था क्या जरुरत थी सिपाहियों से भिड़ने की? कुछ ही घंटों में कितना कुछ बदल चूका था. अभी सुबह की ही बात थी कितने हसीं सपने बुनकर चला था जिसे रात की काली चादर में हकीकत में तब्दील होते देखना चाहता था. यहाँ तो सब कुछ उल्टा होता गया………क्रमशः

1 comment: