Saturday, August 1, 2015

एक आईना हूँ

 


एक आईना हूँ खुद ही को खुद में तलाशता हुआ। अपनी कोई एक सूरत नहीं, कोई एक पहचान नहीं जिसे अपना कह सकू। जाने कैसे लोग खुद को मुझ में खोज लेते हैं? परंतु एक बात तो माननी ही पड़ेगी। जब लोग डर, अज्ञान और स्वार्थ वश पत्थरों में भगवान ढूढ़ सकते हैं तो मुझ में उनका खुद को ढूढ़ने पर कोई हैरत नहीं। हैरत तो तब होती हैं जब उनके चेहरे पर पड़ा ढोंग का नकाब मुझमें न दिखकर उनका असली चेहरा दिख जाने पर तिलमिला जाते हैं। फिर क्या? अपनी ही तस्वीर का अपनी होने से इंकार कर जाते हैं। परन्तु मैं तो फिर भी एक आईना हूँ भला मैं कैसे उनकी सच्चाई से इंकार करूँ।.........अनिल कुमार 'अलीन'

आप को भी मित्रवर! 
 

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