एक पिता,कुम्हार सा।
समय की चक्की पर
अपने दायित्यों से
बेमोल मिट्टी को...
अपने खून-पसीने से
आकार देता हुआ,
अपने उँगलियों के स्पर्श से
मिटटी को
मन चाहा
रूप देता हुआ,
अतीत को भुलाकर
वर्तमान की बेदी पर
भविष्य को जीने की
कोशिश करता हैं।
न जाने कितने बार
हमें थपथपाता है
ताकि वक्त की कसौटी
पर हमे खरा उतार सके।
न चाहकर भी
एक दिन
खुद से दूर
जीवन के अग्नि-पथ पर
हमें अकेला छोड़ जाता है
ताकि हम पककर
और भी मजबूत हो सके
आने वाले हर संकट से
लड़ने के लिए।
इस जीवन अग्नि में
हममे से कुछ
जलकर काले,
कुछ लाल।
और कुछ अधपके से
से टूटकर बिखर जाते हैं।
....अनिल कुमार "अलीन".....
समय की चक्की पर
अपने दायित्यों से
बेमोल मिट्टी को...
अपने खून-पसीने से
आकार देता हुआ,
अपने उँगलियों के स्पर्श से
मिटटी को
मन चाहा
रूप देता हुआ,
अतीत को भुलाकर
वर्तमान की बेदी पर
भविष्य को जीने की
कोशिश करता हैं।
न जाने कितने बार
हमें थपथपाता है
ताकि वक्त की कसौटी
पर हमे खरा उतार सके।
न चाहकर भी
एक दिन
खुद से दूर
जीवन के अग्नि-पथ पर
हमें अकेला छोड़ जाता है
ताकि हम पककर
और भी मजबूत हो सके
आने वाले हर संकट से
लड़ने के लिए।
इस जीवन अग्नि में
हममे से कुछ
जलकर काले,
कुछ लाल।
और कुछ अधपके से
से टूटकर बिखर जाते हैं।
....अनिल कुमार "अलीन".....
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