Wednesday, February 26, 2014

अँधेरे ने उजाले को दूर किया?


आपके लिए यह पढ़ना जितना हास्यपद है, मेरे लिए लिखना उतना ही दुःखद. एक ऐसा सफ़ेद झूठ, जो हमारे गहरे मन में दिन-प्रतिदिन गहरा होता जा रहा है और हम अपने कमियों और गुनाहों को छुपाने के लिए इसे ढाल बनाकर एक-दुसरे को भ्रमित करने में लगे हुए हैं. हम सभी एक ऐसी नींद में है जिसकी कोई सुबह नहीं. क्या यह संभव है कि अँधेरा के आने से प्रकाश दूर हो जाए? यह अलग बात है कि प्रकाश के जाने पर अँधेरा आ जाये. वैसे भी अँधेरे जैसी कोई चीज होती ही नहीं, यह तो प्रकाश की अनुपस्थिति मात्र है. हम जब कभी भारतीय समाज के परिवर्तित स्वरूप के कारणों पर प्रकाश डालते हैं तो हमेशा दोषी पाश्चात्य संस्कृति को ही मानते हैं अर्थात अँधेरे को प्रकाश के बुझाने का दोषी. यह मानवीय स्वभाव है कि हम जब भी कुछ कहते है खुद को बचाकर कहते हैं. जिसका यह नतीजा है कि हमें हमेशा दोषी हमारे सामने वाला ही प्रतीत होता है. यदि हम खुद का आत्ममंथन और विश्लेषण करते हैं तो पाते हैं कि हमने भारतीय संस्कृति को मात्र शब्दों और स्वरों में जिन्दा रखा है. यह बिलकुल वैसे ही है जैसे प्राचीन मिश्र के लोग अपने पूर्वजों के शवों को पिरामिडों के अन्दर मम्मी के रूप में रखते थे. यहाँ तक तो बात ठीक है परन्तु यदि वो यह कहे कि हम उन्हें इसमे जिन्दा रखे हैं तो यह तो उनकी मुर्खता ही कहलाएगी. ऐसा ही कुछ हम भारतीय संस्कृति के साथ कर रहे हैं जो हमारे स्वरों और शब्दों में जिन्दा तो है परन्तु स्वभाव और आचरण से दिन-प्रतिदिन दूर होती जा रही हैं. हमारे पूर्वजों ने हमें एक दीपक जलाकर दिया था परन्तु कभी हमने इसकी जरुरत नहीं समझी उसमे तेल डालने की, उसकी बाती बदलने की. धीरे-धीरे तेल कम होता गया और बाती जलती गयी. नतीजतन दीये का सारा तेल ख़त्म हो गया और बाती जल गयी. परिणाम स्वरुप हमारे चारो तरफ अँधेरा फ़ैल गया. हम बस दीये की डींगे हाकने में लगे रहे और उसके प्रकाश का झूठा दंभ भरते रहे. हाथों में बुझे हुए दीपक लेकर उजाले का गुणगान गाते रहे और खुद को बचाते हुए बड़ी सफाई से दीये के बुझ जाने का दोष अँधेरे पर आरोपित कर दिए. हमने कभी जरुरत नहीं समझी दीये को जलाकर उसकी रोशनी से लोगों को अवगत कराने की. हमने कभी जरुरत नहीं समझी दीये को जलाकर उसके प्रकाश से अँधेरे को दूर भगाने की. हमने कभी जरुरत नहीं समझी परिश्रम और साधना से अपना मार्ग प्रशस्त करने की. कहते कुछ गए और करते कुछ गए. जब तक दीपक में रोशनी थी हमने उसका एक-दुसरे के घरों को फुकने के लिया किया. परिणाम यह हुआ कि सबकुछ जलकर राख हो गया. हमने धर्म, मर्यादा, परम्परा इत्यादि को ढाल बनाकर अपना स्वार्थ, सत्ता और वर्चस्व सिद्ध करते गए. जब स्वार्थ, सत्ता और वर्चस्व का दूर जाने का भय सताने लगा तब होश आया कि हमारी संस्कृति हमसे दूर जाती रही. फिर हम खुद को दोषी न ठहराकर सारा दोष पाश्चात्य संस्कृति पर डाल दिए. साथ ही अपने आने वाली पीढ़ी को यह पाठ पढ़ाने में लग गए कि पाश्चात्य संस्कृति का अनुकरण मत करो क्योंकि वह अँधेरा है और हमारी संस्कृति उजाला है. और जब पाश्चात्य संस्कृति हम पर हावी हो गयी तो अब हम यह कहने लगे की अँधेरे ने प्रकाश को बुझा दिया. यह कहना कितना हास्यपद है?

सच तो यह है कि हमने दीपक को बुझने दिया और उजाले को एक कोरी कल्पना समझते गए. हम अपने स्वार्थ, सत्ता और वर्चस्व को कायम रखने के लिए एक-दुसरे को आश्वस्त करते गए कि प्रकाश एक कोरी कल्पना है जो प्रैक्टिकल जीवन में संभव नहीं है. साथ ही प्रकाश के जाने का जश्न मानते हुए नंगा नाच चालू कर दिए. एक ऐसा नाच जो हमारे संस्कृति के ठीक विपरीत था. ठीक इसी समय किसी ने हमारे दीपक के प्रकाश से प्रेरणा लेकर बल्ब का अविष्कार कर दिया जिससे हमारे आखों के सामने चका-चौंध छा गया और हमारा नंगापन प्रदर्शित होने लगा. यह बात हमारे लिए असहनीय थी. अतः हमने खुद को निर्दोष बताते हुए सारा दोष सामने वाले के माथे मढ़ दिया. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार एक आदर्श व्यक्ति की परिभाषा देखि जाय तो शारीरिक, मानसिक, सामाजिक व अध्यात्मिक इन चारो रूप से स्वस्थ व्यक्ति ही स्वस्थ है. यदि अपने वेदों व ग्रंथों का भली-भांति अध्ययन करें तो ऐसा ही कुछ पाएंगे. पर इसकी कसौटी में उतरने की बात की जाय तो हम इस पर सही ढंग से नहीं उतरते. ऐसे में भारतीय संस्कृति का उत्थान असंभव सा लगता है. यक़ीनन बहुत देर हो चला है. परन्तु हमारा उत्थान कोई असंभव बात नहीं. आज जरूरत है हमारी संस्कृति को अपने स्वरों और शब्दों से उतारकर उसे परिश्रम और साधना से अपने व्यक्तित्व में समाहित करने की. आज जरुरत है अपने पूर्वजों द्वारा दिए हुए दीपक के बाती को बदलने की. उस दीपक में नवीनीकरण की तेल डालने की. उस दीपक से घर-घर एक दीप जलाने की. फिर उसके प्रकाश तले अपने  परिश्रम व साधना से एक ऐसे दीपक के निर्माण करने की जो पाश्चात्य के बल्ब को धूमिल कर दे. जिसके प्रकाश से पूरी दुनिया प्रकाशित हो जाए. इस लेख का समापन लगभग १० साल पहले लिखी अपनी इन पक्तियों के साथ करना चाहूँगा-

 

 

अलीन’ अलीन ‘की बात करें और उन्हें बुरा न लगे,

यह तो वही बात हुई चिराग तूफान में हो

और उसे हवा न लगे.

हमेशा परेशान रहा है सत्य मगर पराजित नहीं,

खुदा करें कि अबकी बार भी किसी की नज़र न लगे.

6 comments:

  1. जब हम स्वार्थ-वश हो जाते हैं तो,दोशारोपण सहज और जरूरी हो जाता है.
    यही हालात आज हैं---युवा पीढी की आकांक्षाएं सीमा लांघ रहीं हैं और अपने
    कर्तव्यों की पहचान जान बूझ कर भूल रहे हैं.
    खुदा करे अबकी बार----आमीन

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    1. आदरणीय!
      हमारी सबसे बड़ी कमी यही तो है कि अभिभावक युवा पीढ़ी को दोषी ठहरा रहे हैं और युवा पीढ़ी अभिभावक को.....................आपको यह नहीं लगता कि कहीं न कहीं परवरिश में कमी हो रही है...........

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  2. बहुत सारगर्भित और विचारोत्तेजक आलेख...

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  3. हार्दिक आभार...............श्रीमान................

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