Friday, January 6, 2012

अख़बार की सुर्ख़ियों से


साल २०११ का आखिरी दिन यानि ३१ दिसम्बर, २०११ की सुबह  बजे की बात हैआजमगढ़ बस स्टैंड  पर  मैं बलिया जाने वाली बस  का इंतजार कर रहा था. तभी एक पेपर वाले की आवाज़ मेरे कानों  तक पहुँचीमैंने चार रुपयें छुट्टे देकर एक पेपर की प्रति ली. मेरी एक खास आदत है  कि मैं कोई  भी पेज दो मिनट्स  से अधिक नहीं पढ़ता.युहीं पेजों के पलटने के दौरान,अचानक मेरी नज़र वाराणसी समाचार के एक घटनाक्रम पर जाकर ठहर गयीवाराणसी के घोहना, शिवपुर के एक होमियोपैथ डाक्टर के पुत्र और बहु ने फाँसी लगा ली. उनके पास से मिले सुसाइड नोट्स से पता चलता है कि इस घटना के पीछे दहेज़ और प्रेम विवाह दोनों ही कारक हैं. जिसमे उक्त दम्पति ने परिजनों पर आत्महत्या के लिए प्रेरित करने का आरोप लगाया है. यक़ीनन इस खबर को विभिन्न लोगों ने विभिन्न तरह से लिया होगा, कुछ ने इसे गंभीरता से तो कुछ ने इसे मजाक में. पर कुल मिला जुलाकर नतीजा ये निकलता है कि ऐसी घटनाएँ आये दिन होती रहती हैं और हम इसके आदि से हो गए हैं और संबेदनहीन भी. कोई भी व्यक्ति आत्महत्या करने का सौख नहीं रखता है. पर यदि ऐसी घटनाएँ होती है तो संबंधित व्यक्ति कि मजबूरियों का अंदाजा लगाना मुश्किल है. आज दहेज़ प्रथा और ओनर किल्लिंग जैसे दानवमानवीय भावनाओं और मूल्यों को निगलने के लिए मुख पसारे खड़े हैं. जो निश्चय ही मानवता के लिए अच्छी खबर नहीं है. ये घटनाएँ हमें सोचने पर मजबूर करती है कि क्या मानवीय मूल्यों से बेशकीमती चंद सिक्के, झूठे शान और मर्यादाएं हैं जो अक्सर स्वार्थ के आगे बेबस नजर आती हैं. हम अपने स्वार्थ के लिए इन सबको दाव पर लगाने के लिए तैयार है. पर दो दिलों के खुशियों के लिए इसे तोड़ने के लिए तैयार नहीं. जो हमारे गंदे मानसिक एवं सामाजिक स्तर को दर्शाता है. 'वो गए अपनी बला' से भले ही यह कहकर हम ऐसी घटनाओं से खुद को अलग-थलग करना चाहें. पर कहीं कही हम इसके लिए जिम्मेदार हैं और जिम्मेदार है, यह हमारा सामाजिक परिवेश. आये दिन जो हम इज्जत, मर्यादा, शान और समाज के नाम पर मानवीय भावनाओं के रौंदने का खेल खेल रहें है, उसे बंद करना ही होगा. नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब मानवता हर गलियों और बाजारों में बिकती हुई नजर आएगी और कोई खरीदार नहीं मिलेगा. अब हमारे पास दो ही रास्ते हैं या तो हम अपने तन से शराफ़त  के चोलें हटाकर समाज के सम्मुख आये या फिर उन लोगों को जीने का हक़ दे, जो  अपनी जिंदगी अपने अर्थों में जीना चाहते हैं.
अंत में आपके सम्मुख एक सवाल रखना चाहता हूँयदि किसी से रिश्ता निभाने कि सजा मौत है तो एक रिश्तें  को तोड़ने कि सजा क्या होनी चाहिए, हमें इस पर भी विचार करना होगा...

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