Sunday, August 23, 2015

वो जो पत्थरों में प्राण फुँकते हैं

मूर्तिपूजकों की मान्यताओं में एक हास्यपद चीज देखी जाती है। वह यह कि किसी मंदिर में देवी-देवता/ ईश्वर की मूर्ति की स्थापना से पूर्व बकायदा रीति-रिवाजों के साथ तंत्र-मन्त्रों से इन बेजान पत्थरों में प्राण-प्रतिष्ठा करते  है। भाई यह तो कमाल की घटना है। एक तरफ कहना कि ईश्वर जीवोँ में प्राण फूँकता है। दूसरी तरफ लोग निर्जीवों (पत्थरों) में प्राण फूँक रहे हैं और वह भी ईश्वर का प्राण। अर्थात वे लोग तो उस ईश्वर से भी श्रेष्ठ है जिसे वे खुद से श्रेष्ठ बताते हैं। फिर तो उनकी अपने ईश्वर को निचा दिखाने की कोशिश नहीं तो और क्या है? उनका ईश्वर जिन पत्थरों में प्राण नहीं फूँक सकता, उन पत्थरों में वे लोग उसी का प्राण फूँक रहे हैं। वह कितना बेहाया और बेशर्म है कि इतने जिल्लते सहने के बाद भी मुर्ख मानवों के मन-मस्तिष्क में जिन्दा रहता हैं। उससे भी कहीं ज्यादा बेहाया और बेशर्म वे लोग है जो खुद तो मर जाते हैं। परंतु ईश्वर को अपने पीढ़ियों के मन-मस्तिष्क में स्थानांतरण कर देते हैं ताकि उससे श्रेष्ठता की होड़ चलती रहे हैं। आख़िरकार यह कैसी मूर्खता है कि भोजन रहते हुए भी कोई भूखा मरे जा रहा हैं, पानी रहते हुए भी कोई प्यासा मरे जा रहा हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि ईश्वर मानवों की दया की बदौलत जिन्दा रहता हैं या फिर हम मानवों का डर है कि यदि ऐसा नहीं किया गया तो ईश्वर मर जायेगा। भाई यहाँ तो बड़ा कंफ्यूज़न है। समझ में ही नहीं आता कि बंदा कौन है और ख़ुदा कौन है? प्राण-प्रतिष्ठा कला का ज्ञान होते हुए भी लोगों के प्राण-पखेरू उड़े जा रहे हैं और मानव मन प्राण-प्रतिष्ठा कला ज्ञान होते हुए भी मौन पड़ा हुआ है।कोई आस्तिक या नास्तिक यह न समझे कि मैं किसी की आलोचना या समर्थन कर रहा हूँ। अतः किसी को नाराज या खुश होने की जरुरत नहीं। बस आस्तिक भाइयों से इतनी विनती है कि यदि आप लोग सचमुच सक्षम हो तो इस प्रकार के वाहियात कार्यों को करके अपने शक्ति का दुरूपयोग क्यों? निर्जीवों  को जीवन देने से कहीं बेहतर होगा कि जीवोँ को जीवन देते। आये दिन लाखों लोग वक्त के मार से कहीं सडकों पर, कहीं अस्पतालों में, किसी के आँखों के सामने तो किसी के आँखों से दूर मरे रहे हैं। चारो तरफ दुःख और पीड़ा से मानव मन तपते रेगिस्तान की भाँति व्यथित है। कहीं माँ-बाप से उनके आँखों का तारा तो कहीं किसी संतान से बचपन का सहारा, कहीं किसी से बहन तो कहीं किसी से भाई, कहीं किसी से सुहाग तो कहीं किसी से लुगाई, कहीं किसी से हँसी तो कहीं किसी से रुलाई; न चाह कर भी छूटते रहते हैं और ऐसे में आँखों के अश्क, असहाय हो बहते रहते हैं। मानव-मन व्यथित है और आँखें आँसुओं में भी डूबकर कर प्यासी है। ऐसे नाजुक हालात में इंसानों को छोड़कर पत्थरों में प्राण प्रतिष्ठा करना मूर्खता नहीं तो क्या है?......अनिल कुमार 'अलीन'

2 comments:

  1. Ye sab aankhon vale andhe hain...andhe aage roye apne Naina khoye...

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  2. Ye sab aankhon vale andhe hain...andhe aage roye apne Naina khoye...

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