Monday, June 1, 2015

धर्म-एक सफ़ेद झूठ

 

वैदिक संहिताओं के अनुसार, "धर्म व्यक्ति के दायित्वों एवम् स्वयं तथा दुसरो के प्रति व्यक्तिगत कर्तव्यों की संकल्पना है." जो हकीकत के धरातल से कोषों दूर कहीं विशाल अंबर में उस बादल के समान है जो वर्षों से बरसा नहीं वावजूद इसके लोग उसे देखकर खुद को भीगा हुआ पाते हैं.

बहरहाल ग्रंथों में काले अक्षरों में उल्लेखित धर्म और आचरण की परिभाषाएं हमारे आचरण में कहाँ तक जीवंत है ? वर्तमान समाज का अन्वेषण से स्पष्ट हो जाता है. वास्तविकता के धरातल पर धर्म व्यक्तिगत कर्तव्य की संकल्पना न होकर दुसरो पर थोपने या उन्हें बाँधने की कोशिश मात्र है जिसका परिणाम अतिभयावह है. हकीकत तो यह है कि अधर्म, धर्म का चोला पहनकर धर्म का शोषण ( साम्प्रदायिकता,  बलात्कार, भ्रष्टाचार, नशा, इत्यादि रूपों में)  कर रहा हैं. मुझे अभी तक कोई ऐसा धार्मिक नहीं मिला जो व्यक्तिगत कर्तव्यों की तरफ उन्मुख हो यह अलग बात हैं कि निश्चय ही कुछ धार्मिक लोग ऐसे होंगे जी व्यक्तिगत कर्तव्यों की तरफ उन्मुख होंगे. जो लोग आये दिन चिला-चिलाकर खुद को धार्मिक सिद्ध  करने में लगे हैं  और और इसके लिए  बेगुनाहों के खून बहाने से भी परहेज नहीं करते, आखिरकार वे कहाँ तक स्वयं और समाज के प्रति व्यक्तिगत कर्तव्यों  का निर्वहन कर रहे हैं. हाँ यह जरूर है कि व्यक्तिगत स्वार्थ और सत्ता के लिए धर्म की दुहाई देकर एक- दूसरे पर कर्तव्यों को थोपे जा रहे हैं. जिसका परिणाम है दिन पर दिन हमारे बीच बढ़ता जा रहा असंतोष, घृणा, द्वेष ......

दूसरी तरफ  इनसे कहीं  बेहतर हैं वे लोग जो खुद अधार्मिक और नास्तिक बताते हैं और स्वयं और समाज के प्रति व्यक्तिगत कर्तव्यों का निर्वहन करके धर्म को नया आयाम दे रहे हैं. ये अलग बात है कि इनमें भी कुछ ऐसे है जो  स्वयं और समाज के प्रति व्यक्तिगत कर्तव्यों के निर्वहन से दूर धर्म और आस्तिक जैसे शब्दों के जंजाल में फंसें हुए हैं ...........…………………।                                                अनिल कुमार 'अलीन'

 

 

 

 

 

 

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