वो निकला था जहां में एक आग बनकर,
किस्मत देखों उसकी, रह गया राख बनकर.
बचपना था उसके अन्दर, जो हरकते करता बच्चों की,
शायद गलत फहमी थी उसे, अपने शैतान होने की.
काश उसे ये मालूम होता, यह जहां है शैतानो का,
जहाँ उठता है ज़नाजा, धर्म के नाम पर अरमानों का.
यहाँ कही नाम बिकते हैं, कही ईमान बिकते हैं,
जब कुछ न हो पास, रहीम और राम बिकते हैं.
सत्य को पुजनेवालें, सत्य से कहीं कोशों दूर,
जिनको लूटने चला वक्त के हाथों एक मजबूर.
कहीं अच्छा था हम इंसानों से, वो जन्म से शैतान,
उसकी फितरत शैतानियत, पर हम तो जन्म से इंसान.
जब अवगत हुआ हकीकत से अपना जोश खो दिया,
हसीं आई खुद की मासूमियत पे, नासमझी पर रो दिया.
तबतलक बहुत देर हो चली, यहाँ आकर मजाक बन गया,
बनकर निकला था जो आग, हमारे हाथों खाक बन गया.
..........………………………अनिल कुमार 'अलीन'…………………………
(चित्र गूगल इमेज साभार )
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